कालीचाट
निर्देशन : सुधांशु शर्मा, लेखक : सुनील चतुर्वेदी, पटकथा, संवाद : सोनल शर्मा
Neolit Publications, Indore
अभी पिछ्ले दिनों
एक फिल्म देखी ‘ट्वेल्थ फेल’ । फिल्म अच्छी लगी तो उस उपन्यास को पढ़कर देखने की इच्छा हुई जिस पर यह फिल्म
बनी है । उपन्यास का ऑर्डर करते समय वह एक कॉम्बो पैक में दिखा। दूसरी किताब थी लेखिका
सोनल की ‘फिल्म बनती है... और बनाती भी है !’ । ‘फिल्म बनती है... और बनाती भी है !’ एक फिल्म के बनने की कहानी है। फिल्म का नाम है ‘कालीचाट’,
जो सुनील चतुर्वेदी के इसी नाम के उपन्यास पर आधारित है । फिल्म की पटकथा
और संवाद सोनल ने लिखे हैं । किताब इतनी रोचक लगी और फिल्म की कथा-वस्तु ने इतना आकर्षित
किया कि किताब पढ़ने के बीच में ही सोनल जी को मेसेज कर पूछा कि फिल्म कैसे देखी जा
सकती है । और पहले से भी पेश्तर की तर्ज़ पर
उनका जवाब आ गया फिल्म की लिंक के साथ । किताब खत्म होते ही फिल्म देखी गई।
फिल्म
मालवा-निमाड़ क्षेत्र के एक गाँव के एक किसान की कहानी है । और यह कहानी उतनी ही सच
है जितना हमारा जीवन । किताब में लेखिका ने पिकासो को उद्धृत किया है – “ कला
एक झूठ है...फेंटेसी है, लेकिन यह कला ही है जो हमें जीवन के सत्य के दर्शन करवाती
है ।” फिल्म
की कहानी इस तरह से बुनी गई है कि आपको एक पल के लिए भी छोड़ती नहीं। आप फिल्म देखते
जाते हैं और लगातार सोचते जाते हैं कि अब भी, अब भी ऐसा हो रहा है !
1936 में प्रकाशित प्रेमचंद का ‘गोदान’, 1954 में प्रकाशित रेणु का ‘मैला आँचल’ और 1968 में प्रकाशित श्रीलाल शुक्ल का ‘राग दरबारी’
अगर आपने पढ़ा हो तो इस फिल्म को देखकर आप यह जरूर सोचेंगे कि भारत बदल
कहाँ रहा है ? सबकुछ चला आ रहा है जस का तस । फिल्म एक किसान
के जीवन ( इसे एक साधारण ग्रामीण का जीवन भी कहा जा सकता है) को इस तरह से,
इतने करीब से दिखाती है कि आप फर्क ही महसूस नहीं कर पाते, फिल्म से अपनी दूरी नहीं बनाए रख सकते । फिल्म आप में प्रवेश कर जाती है,
आप फिल्म में प्रवेश कर जाते हैं। यह फिल्म की कथा, पटकथा, संवाद, अभिनय, संगीत और निर्देशन – फिल्म के हर विभाग के अव्वल दर्जे का होने के कारण ही
संभव हो पाया है । एक घंटे दस मिनट की यह फिल्म एक ऐसे सच से रूबरू कराती है जिसके
बारे में हम रोजाना सुनते तो हैं लेकिन दूसरी तरफ मुँह फेर कर बचकर निकल जाते हैं ।
फिल्म उसी सच को हमारी आँखों में उँगली गड़ाकर दिखाती है और बेचैन कर देती है । देश
में रहने वाला कोई व्यक्ति तभी इतना बेबस और लाचार हो सकता है जब पूरा सिस्टम ही फेल
हो जाए । पहले दृश्य से ही फिल्म इतनी विश्वसनीय है कि फिल्म के समाप्त हो जाने के
बाद भी फिल्म आपके साथ रह जाती है । फिल्म अपने संवादों से मालवा की आँचलिकता को साथ
लिए चलती है, लेकिन यह पूरे भारत के किसानों की पीड़ा को स्वर
देती है ।
‘कालीचाट’
फिल्म बनी 2016 में और यह महज संयोग ही है कि इस फिल्म को देखने का मौका
मुझे मिला । यह फिल्म किसी बड़े , नामीगिरामी निर्माता निर्देशक
की फिल्म होती तो मीडिया भी तारीफों के पुल बाँधता लहालोट हो रहा होता । फिल्म की नायिका
के लुक के लिए अभिनेत्री गीतिका श्याम द्वारा की गई तैयारी, जिसमें
घंटों धूप में बैठना और उड़ती हुई रेत के सामने खड़ा रहना शामिल है, और जिसे फिल्म के निर्देशक सुधांशु शर्मा ‘मेक डाउन’
कहते हैं , उस तैयारी की खूब चर्चा की गई होती
। खैर, फिल्म ने अपने समय को ‘डॉक्यूमेंट’
कर लिया है और इतिहास में दर्ज की गई हर ईमानदार बात बची रहती है पीढियों
को रास्ता दिखाने के लिए ।
स्व.
जयप्रकाश ने ‘कालीचाट’ के विषय में बात करते हुए
लिखा है – “ ...इस
फिल्म को संसद और विधानसभाओं में दिखाया जाना चाहिए ताकि हमारे हुक्मरान किसान की वेदना
को समझ सकें ।” मुझे लगता है इस फिल्म
को राज्यों के प्रशासनिक सेवा और बैंकों के प्रशिक्षण केंद्रों पर भी अनिवार्य रूप
से दिखाया जाना चाहिए । ब्लॉक या तहसील स्तर के प्रशासनिक कार्यालयों के कर्मचारियों
को भी यह फिल्म दिखाई जानी चाहिए । कहीं तो किसी की आँख का पानी बचा हुआ होगा ! स्व.
विष्णु खरे ने फिल्म पर लिखा है – “ एक फिल्म निर्देशक को किसी साहित्यिक कृति
का कैसा इस्तेमाल करना चाहिए यह भी इससे उजागर होता है ।” मैं इसमें जोड़ना चाहता
हूँ कि एक फिल्म के जरिये एक निर्देशक किस तरह साहित्य की रचना करता है यह फिल्म इसका
भी एक बेहतरीन उदाहरण है ।
फिल्म देखते हुए यह खयाल आया कि आदमी टूटता कब है ? सरकारी कर्मचारी/अधिकारी जो लोक-सेवा के लिए चयनित होते हैं, वे शासक बन बैठते
हैं और अपनी ही जनता को लूटने- खसोटने लगते हैं । बैंक या किसी भी संस्था के जिम्मेदार
पदों पर बैठे व्यक्ति जब जरूरतमंदों की बात तक सुनने को तैयार नहीं, और बात सुन भी
ली तो जिम्मेदारी के साथ जवाब देने को तैयार नहीं । जब करीबी दोस्त जिनसे गाढ़े समय
में कम से कम सही सलाह- मशविरे की उम्मीद होती है, वो भी चलताऊ किस्म की बातें
कर जाएँ भले ही कितना भी नुकसान क्यों न होता जाए । और जब जीवन साथी का ही धैर्य जीवन
के सबसे नाजुक और कमजोर क्षणों में चुक जाए, जब एक तिनके भर का सहारा
भी बहुत हो सकता है, धीरज के दो शब्दों की जगह
ताने सुनने को मिले । व्यक्ति टूट जाता है । इस टूटन को आप बहुत शिद्दत के साथ महसूस
करते हैं ‘कालीचाट’ को देखकर ।
अब कुछ बातें उस किताब के बारे में भी जिसे पढ़कर इस फिल्म
को देखने का संयोग बना । ‘फिल्म बनती है...और बनाती भी है!’ लेखिका सोनल की
यह किताब बहुत ही रोचक है। डायरीनुमा इस किताब का प्रवाह इस कदर अच्छा है कि किताब
पूरी पढे बिना आप इसे रख नहीं सकते । एक प्रसंग वे लिखती हैं – “ ये तो वो है जो
मैं निरी गैर तकनीकी व्यक्ति समझ पाई और याद रख पाई । असल में तो मैं आपको फिल्म निर्माण
से जुड़े किस्से सुना कर उस दिन के तनाव को आज के आनन्द में बदलना चाहती हूँ ।” यही आनंद एक निरा गैर तकनीकी पाठक इस किताब में फिल्म निर्माण
से जुड़े किस्से पढ़कर पाता है । वह समझ पाता है कि फिल्म निर्माण कितनी मेहनत का काम
है । कितने जोश और जज़्बात का । कितनी शिद्दत से कई लोगों को लगना पड़ता है एक फिल्म
को बनाने में । फिल्म विश्वसनीय तभी बन पाती है ।
अंत में लेखिका सोनल के कविता संग्रह ‘पता नहीं’ से एक कविता ‘ओ किसान’ उद्धृत है जिसे
स्व. जयप्रकाश चौकसे ने भी ‘कालीचाट’ फिल्म से संबंधित अपने लेख में उद्धृत किया है –
खेत खेत उचक
कर चारों ओर
देख रही है टापरियाँ
हर खेत में बोए
गए हैं कई कई मन
और कई कई इच्छाएँ
दादा का ऑपरेशन
गुड्डी की शादी
खेत में बोने
को अगली फसल के बीज
पुकार रहा है
हर कोई
इस खेत से उस
खेत
सुनो रे इस बार
लगाओ पूरी ताक़त
अन्न से भर दो
घर आँगन-ओसार
और बैंक का पूरा
करजा !
***
फिल्म कालीचाट का यूट्यूब लिंक : https://youtu.be/p5X4txu9ye0?feature=shared
‘फिल्म बनती है...और बनाती भी है’, लेखिका – सोनल – amazon एवं neolitpublications (neolit.in)
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