‘इश्क़
में माटी सोना’ … मानो कहानी और नज़्म की मुलाकात हो गई
कहानी कब कहानी का
रास्ता छोडते हुए कविता के रास्ते से मिल जाती है , यह देखना-समझना हो तो
‘इश्क़ में माटी सोना’ पढ़ी जानी चाहिए ।
राजकमल प्रकाशन की ‘लप्रेक’ सिरीज़ की दूसरी
किताब । पहली किताब के लेखक रवीश कुमार के असर को इस दूसरी किताब के लेखक गिरीन्द्र
नाथ झा इस तरह से सामने रखते हैं “ रवीश कुमार ने जब
फेसबुक पर लघु प्रेम कथा लिखने की शुरुआत की तो मैं एक झटके में ‘रवीश
मैनिया’ की चपेट में आ गया”। खैर
। ‘इश्क़ में माटी सोना’ …। लघु प्रेम कथाओं की 84 पृष्ठों
की छोटी-सी पुस्तक ने पहली बार भी बाँधा था और जब- जब फिर से पढ़ी है किताब,
फिर- फिर बाँध लेती है ।
कथा शुरू होने से
पहले पूर्णिया से दिल्ली पहुँचती है । और फिर दिल्ली से शुरू होकर गाँव तक । किताब
प्रकाशित हुई थी दिसम्बर 2015 में और इसकी भूमिका लिखी गई 05 दिसम्बर 2015 को । यानी
आज से ठीक 6 साल पहले । इन 6 सालों में लेखक पूर्णिया- चनका में रम गए हैं । 6 सालों
में ज़माना बदला है । कथा के नायक- नायिका जिनकी रैली में जाने की बातें करते हैं, तब से अब तक सरकार उन्हीं की है । यह देखना दिलचस्प होगा कि कथा आज कहाँ तक
पहुँचती है । लेखक उनको कहाँ पहुँचाते हैं या फिर वे ही लेखक को कहाँ- कहाँ लेकर जाते
हैं ।
‘इश्क़ में माटी सोना’
की लघु कथाएँ चौंकाती नहीं हैं, चोट नहीं करती
हैं । धीरे- धीरे मन में घुल जाती हैं । जैसे किसी शीशे के मर्तबान में रखे पानी में
रंग धीरे- धीरे फैले । जैसे ‘सॉन्देश’ का
स्वाद धीरे- धीरे मुँह में घुले । जैसे पूर्णिया में दिखने वाली गहरी, नमी वाली हरियाली आँखों में समा जाए
। गिरीन्द्र भूमिका में गुलज़ार और रेणु के प्रभाव की बात करते हैं , जो यहाँ- वहाँ झलकता भी है । उदाहरण के लिए ये दो पंक्तियाँ – “ उसे
चाँद पसन्द था मुझे तारों भरा आसमान...” और “ जो मन
पढ़ ले वह तो मेरे लिए मीता है न !!”
कथा दिल्ली में शुरू
होती है । अलग- अलग इलाकों का ज़िक्र कथा को विस्तार देता है , समय के हिसाब से भी और जगह के हिसाब से भी । कथा जब गाँव पहुँचती है तो गाँव
की दिनचर्या बड़ी सहजता से साथ कथा का हिस्सा बन जाती है । प्रकृति कथा में हर कदम पर
मौजूद है, पूरे निखार के साथ । खेती- किसानी भी कथा प्रवाह में उपस्थित है कथा को " सुन्नैर" बनाती हुई। कहते हैं जो अच्छी रचना होती है,
वो अपने समय का इतिहास दर्ज़ करती चलती है । ‘इश्क़
में माटी सोना’ यह काम बखूबी करती है । जब कथा दिल्ली में रहती
है, तो वहाँ व्यक्तिगत अनुभव ज्यादा सक्रिय हैं । लेकिन जब कथा
गाँव पहुँचती है वह व्यक्तिगत से समाज-गत होने लग जाती है – अपनी समस्याओं,
परिस्थितियों, आकांक्षाओं, अपने मान- मनुहारों में । यह शहर और गाँव के समाज के चरित्र को अंकित कर देता
है । राजनीति के प्रति जागरुकता भी गाँव के माहौल में उभर कर सामने आती है । कथा का
यह ताना-बाना हमारे मानसिक- सामाजिक बुनावट को पकड़ने और दर्ज करने की सार्थक कोशिश
करता है ।
जैसा कि ऊपर भी कहा
गया है कि इस किताब में ‘मानो कहानी और नज़्म की मुलाकात हो गई’ है । किताब को पढ़ते समय कथा की कवितात्मकता हमारे साथ चलती है और हमें बाँध
कर रखती है । जिस तरह कविता यह माँग करती है कि पाठक धीरे- धीरे उसका स्वाद ले,
इश्क़ में माटी सोना भी ठहर कर स्वाद लेने का आग्रह करती है । और फिर
वह स्वाद मुँह में बैठ जाता है, बहुत- बहुत देर के लिए । इसलिए
भी ‘ इश्क़ में माटी सोना’ ने पिछले 6 सालों
में कहाँ तक का सफ़र किया है, उसको जानना बहुत ही दिलचस्प होगा
। फिर, लेखक की जिम्मेदारी लिखते रहना भी तो है !