सोमवार, 6 दिसंबर 2021

‘इश्क़ में माटी सोना’ के 6 साल


 

इश्क़ में माटी सोना’ … मानो कहानी और नज़्म की मुलाकात हो गई

 

 

कहानी कब कहानी का रास्ता छोडते हुए कविता के रास्ते से मिल जाती है , यह देखना-समझना हो तो इश्क़ में माटी सोनापढ़ी जानी चाहिए । राजकमल प्रकाशन की लप्रेकसिरीज़ की दूसरी किताब । पहली किताब के लेखक रवीश कुमार के असर को इस दूसरी किताब के लेखक गिरीन्‍द्र नाथ झा इस तरह से सामने रखते हैं रवीश कुमार ने जब फेसबुक पर लघु प्रेम कथा लिखने की शुरुआत की तो मैं एक झटके में रवीश मैनियाकी चपेट में आ गया। खैर । इश्क़ में माटी सोना’ …। लघु प्रेम कथाओं की 84 पृष्ठों की छोटी-सी पुस्तक ने पहली बार भी बाँधा था और जब- जब फिर से पढ़ी है किताब, फिर- फिर बाँध लेती है ।   

 

कथा शुरू होने से पहले पूर्णिया से दिल्ली पहुँचती है । और फिर दिल्ली से शुरू होकर गाँव तक । किताब प्रकाशित हुई थी दिसम्बर 2015 में और इसकी भूमिका लिखी गई 05 दिसम्बर 2015 को । यानी आज से ठीक 6 साल पहले । इन 6 सालों में लेखक पूर्णिया- चनका में रम गए हैं । 6 सालों में ज़माना बदला है । कथा के नायक- नायिका जिनकी रैली में जाने की बातें करते हैं, तब से अब तक सरकार उन्हीं की है । यह देखना दिलचस्प होगा कि कथा आज कहाँ तक पहुँचती है । लेखक उनको कहाँ पहुँचाते हैं या फिर वे ही लेखक को कहाँ- कहाँ लेकर जाते हैं ।

 

इश्क़ में माटी सोनाकी लघु कथाएँ चौंकाती नहीं हैं, चोट नहीं करती हैं । धीरे- धीरे मन में घुल जाती हैं । जैसे किसी शीशे के मर्तबान में रखे पानी में रंग धीरे- धीरे फैले । जैसे सॉन्देशका स्वाद धीरे- धीरे मुँह में घुले । जैसे पूर्णिया में दिखने वाली गहरी, नमी वाली हरियाली  आँखों में समा जाए । गिरीन्‍द्र भूमिका में गुलज़ार और रेणु के प्रभाव की बात करते हैं , जो यहाँ- वहाँ झलकता भी है । उदाहरण के लिए ये दो पंक्‍तियाँ – उसे चाँद पसन्‍द  था मुझे तारों भरा आसमान... और जो मन पढ़ ले वह तो मेरे लिए मीता है न !!

 

कथा दिल्ली में शुरू होती है । अलग- अलग इलाकों का ज़िक्र कथा को विस्तार देता है , समय के हिसाब से भी और जगह के हिसाब से भी । कथा जब गाँव पहुँचती है तो गाँव की दिनचर्या बड़ी सहजता से साथ कथा का हिस्सा बन जाती है । प्रकृति कथा में हर कदम पर मौजूद है, पूरे निखार के साथ ।  खेती- किसानी भी कथा प्रवाह में उपस्थित है कथा को " सुन्नैर" बनाती हुई। कहते हैं जो अच्छी रचना होती है, वो अपने समय का इतिहास दर्ज़ करती चलती है । इश्क़ में माटी सोनायह काम बखूबी करती है । जब कथा दिल्ली में रहती है, तो वहाँ व्यक्तिगत अनुभव ज्यादा सक्रिय हैं । लेकिन जब कथा गाँव पहुँचती है वह व्यक्‍तिगत से समाज-गत होने लग जाती है – अपनी समस्याओं, परिस्थितियों, आकांक्षाओं, अपने मान- मनुहारों में । यह शहर और गाँव के समाज के चरित्र को अंकित कर देता है । राजनीति के प्रति जागरुकता भी गाँव के माहौल में उभर कर सामने आती है । कथा का यह ताना-बाना हमारे मानसिक- सामाजिक बुनावट को पकड़ने और दर्ज करने की सार्थक कोशिश करता है ।

  

जैसा कि ऊपर भी कहा गया है कि इस किताब में मानो कहानी और नज़्म की मुलाकात हो गईहै । किताब को पढ़ते समय कथा की कवितात्मकता हमारे साथ चलती है और हमें बाँध कर रखती है । जिस तरह कविता यह माँग करती है कि पाठक धीरे- धीरे उसका स्वाद ले, इश्क़ में माटी सोना भी ठहर कर स्वाद लेने का आग्रह करती है । और फिर वह स्वाद मुँह में बैठ जाता है, बहुत- बहुत देर के लिए । इसलिए भी इश्क़ में माटी सोनाने पिछले 6 सालों में कहाँ तक का सफ़र किया है, उसको जानना बहुत ही दिलचस्प होगा । फिर, लेखक की जिम्मेदारी लिखते रहना भी तो है !

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