गुरुवार, 18 मार्च 2021

कुली लाइन्‍स

 



कुली लाइन्‍स : डॉ प्रवीण कुमार झा

 

कहते हैं हर किताब को पढ़ने का एक वक्‍त होता है । और यह किताब ही तय करती है कि आप उसे कब पढ़ेंगे । कुली लाइन्‍स’ – इस किताब के नाम, उसके कवर, उस पर पढ़ी हुई टिप्पणियों ने किताब को पढ़ने की इच्छा पैदा कर दी और जनवरी 2020 में किताब मँगा भी ली गई । लेकिन पढ़ी गई अब यानी मार्च 2021 में । आलस और धीरज हर जगह काम करते हैं – लिखने में भी, पढ़ने में भी !

करीब दो सौ सालों की कथा कहती किताब । कथा ही, इतिहास नहीं । जो बातें कही गई हैं, उनको आज के समय में सच मान लेना बड़ा मुश्किल- सा लगता है । ऐसा भी होता होगा ?

दूसरे यह किताब किसी इतिहासकार द्वारा नहीं लिखी गई है , इस कारण इतिहास पढ़ने की टेक्स्टबुकीयनीरसता से आप बचे रहते हैं ।

पाठक को जो चीज प्रथमदृष्‍टया खींचती है , वो क्या है ?

किताब का नाम – कुली लाइन्‍स’ , जो अपने आप में एक इतिहास समेटे हुए है पर किसी आधुनिक उपन्यास के शीर्षक-सा प्रभाव पैदा करता है । कुली लाइन्‍स पढ़ते हुए एक ऐसा ही शब्द मन में उभरता है – सिविल लाइन्‍सकुली लाइन्‍स’ , गाथा गिरमिटियों की । तो क्या उनके लिए हमारे यहाँ सिविल लाइन्‍सऔर हमारे लिए उनके यहाँ कुली लाइन्‍स’?

फिर कवर का डिज़ाइन – हैंड मेडपेपर का आभास देता कवर । एक उतने ही भावपूर्ण चित्र के साथ ।

किताब का आकार – 270 पृष्‍ठ ( परिशिष्‍ट छोड़कर) जो पाठक के धीरज पर बोझ नहीं डालते ।

 लेखक , डॉ प्रवीण कुमार झा, आपको ले कर चलते हैं कई-कई देशों- द्वीपों की यात्राओं पर । आज जो इंडियन डायस्पोराएक चमक-दमक की छवि देता है उससे एकदम अलग ।

किताब की भूमिका में लेखक ने लिखा है – मैंने उत्तर कम ढूँढे हैं, प्रश्‍न अधिक । इस किताब के कथा-प्रवाह में बहते हुए पाठक के मन में भी प्रश्‍न उठते चलते हैं । कई बार तो आज की परिस्थितियों से तुलना करते हुए पाठक सोचने लगता है – स्थितियाँ जस की तस ही हैं ।

 

इतने लंबे काल-खण्ड और इतने सारे देशों में मजदूरों को ले जाने से जुड़े तथ्यों को ढूँढना एक श्रम-साध्य काम रहा होगा। फिर उन सबको कथा के रूप में पिरोना तो और भी । कथा कहने का ढंग इतना सजीव है कि पाठक खुद को उन पात्रों- परिस्थितियों में पाने लगता है । बीच-बीच में लेखक के प्रश्‍न भी हैं जो इस तादत्म्य को और भी बढ़ा देते हैं, मसलन, “आखिर कैसे कष्‍ट रहे होंगे जिन्हें पढ़कर ही मृत्यु हो जाय?”   लेखक की भाषा और शैली ऐसी है मानो वह इन सारी यात्राओं का साक्षी रहा है ।

अभी हाल में विश्‍व महिला दिवसगुजरा है । इस किताब को पढ़ते समय एक बात जो बार-बार आपको सोचने को मजबूर करती है वह है स्त्रियों की दशा । और फिर आप सोचने लगते हैं कि आखिर बदला क्या है ? सिर्फ तारीख ! क्या स्त्रियाँ आज भी, अपने देश में ही, ‘गिरमिटियाही हैं ? सारी तरक्की के बावजूद । लेखक ने कहा ही है प्रश्‍न अधिक ढूँढे हैं । लेखक का विचार सामने आता है विवाहित महिला क्यों घर से भागी , इसके तमाम कारण हो सकते हैं । वे कारण आज भी कमोबेश हैं

एक और बात को यह बात रेखांकित करती है कि जहाज पर चढ़ने के पहले ही जहाजियों की जाति छूट जाती थी । जाति का आग्रह साथ चलता नहीं था । शायद एकजुट होकर सहने और लड़ने के लिए जातियों की आवश्यकता ही नहीं । और धर्म की भी । एक ही परिवार में अलग-अलग धर्म को मानने वाले लोग भी हो सकते हैं ।   

इस किताब को पढ़ते हुए एक और बात पर ध्यान जाता है । सबसे ज्यादा मजदूरों की खेप बिहार और उत्तर प्रदेश के इलाकों से गई । वहीं गुजरात से लोग व्यापार करने के लिए गए, उस समय भी । क्या बिहार और उत्तर प्रदेश के पिछ्ड़े होने के कारण बहुत पुराने हैं ? क्या वर्तमान में बिहार से देश के दूसरे हिस्सों में मजदूरों के पलायन के बीज तभी के पड़े हैं ?

अलग-अलग देशों में, अलग-अलग परिस्थितियों में लोगों द्वारा अपनी भाषा और सँस्कृति को ज़िंदा रखने के प्रयास जड़ों से जोड़ने का काम करते हैं । क्या इन्हीं बातों से सीखकर हम अपनी बोलियों के संरक्षण और संवर्द्धन के लिए कुछ ज्यादा काम नहीं कर सकते ?  

किताब बहुत सारे अनकहे प्रश्‍न भी करती है ।

हिंदी में कथेतर लेखन थोड़ा कम हुआ है । हालाँकि इधर के कुछ सालों में चलन बढ़ा है । इस तरह के विषय पर यह एक जरूरी किताब है । बौद्धिकता का ह्ल्ला न मचाते हुए यह किताब हमें अपने एक ऐसे इतिहास से वाकिफ कराती है जिस पर कम लिखा गया है । लेखक ने इतिहास की बातों को , जहाँ तथ्यों की प्रस्तुति एकरसता पैदा कर सकती है,  हमारे लिए सहज-सुगम कथा-कहानी वाली भाषा में रखा है , उसके लिए वे बधाई और धन्यवाद के पात्र हैं । ऐसी किताबों से हिंदी के पाठक बढेंगे, ऐसा विश्‍वास है ।

 

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