सोमवार, 6 दिसंबर 2021

‘इश्क़ में माटी सोना’ के 6 साल


 

इश्क़ में माटी सोना’ … मानो कहानी और नज़्म की मुलाकात हो गई

 

 

कहानी कब कहानी का रास्ता छोडते हुए कविता के रास्ते से मिल जाती है , यह देखना-समझना हो तो इश्क़ में माटी सोनापढ़ी जानी चाहिए । राजकमल प्रकाशन की लप्रेकसिरीज़ की दूसरी किताब । पहली किताब के लेखक रवीश कुमार के असर को इस दूसरी किताब के लेखक गिरीन्‍द्र नाथ झा इस तरह से सामने रखते हैं रवीश कुमार ने जब फेसबुक पर लघु प्रेम कथा लिखने की शुरुआत की तो मैं एक झटके में रवीश मैनियाकी चपेट में आ गया। खैर । इश्क़ में माटी सोना’ …। लघु प्रेम कथाओं की 84 पृष्ठों की छोटी-सी पुस्तक ने पहली बार भी बाँधा था और जब- जब फिर से पढ़ी है किताब, फिर- फिर बाँध लेती है ।   

 

कथा शुरू होने से पहले पूर्णिया से दिल्ली पहुँचती है । और फिर दिल्ली से शुरू होकर गाँव तक । किताब प्रकाशित हुई थी दिसम्बर 2015 में और इसकी भूमिका लिखी गई 05 दिसम्बर 2015 को । यानी आज से ठीक 6 साल पहले । इन 6 सालों में लेखक पूर्णिया- चनका में रम गए हैं । 6 सालों में ज़माना बदला है । कथा के नायक- नायिका जिनकी रैली में जाने की बातें करते हैं, तब से अब तक सरकार उन्हीं की है । यह देखना दिलचस्प होगा कि कथा आज कहाँ तक पहुँचती है । लेखक उनको कहाँ पहुँचाते हैं या फिर वे ही लेखक को कहाँ- कहाँ लेकर जाते हैं ।

 

इश्क़ में माटी सोनाकी लघु कथाएँ चौंकाती नहीं हैं, चोट नहीं करती हैं । धीरे- धीरे मन में घुल जाती हैं । जैसे किसी शीशे के मर्तबान में रखे पानी में रंग धीरे- धीरे फैले । जैसे सॉन्देशका स्वाद धीरे- धीरे मुँह में घुले । जैसे पूर्णिया में दिखने वाली गहरी, नमी वाली हरियाली  आँखों में समा जाए । गिरीन्‍द्र भूमिका में गुलज़ार और रेणु के प्रभाव की बात करते हैं , जो यहाँ- वहाँ झलकता भी है । उदाहरण के लिए ये दो पंक्‍तियाँ – उसे चाँद पसन्‍द  था मुझे तारों भरा आसमान... और जो मन पढ़ ले वह तो मेरे लिए मीता है न !!

 

कथा दिल्ली में शुरू होती है । अलग- अलग इलाकों का ज़िक्र कथा को विस्तार देता है , समय के हिसाब से भी और जगह के हिसाब से भी । कथा जब गाँव पहुँचती है तो गाँव की दिनचर्या बड़ी सहजता से साथ कथा का हिस्सा बन जाती है । प्रकृति कथा में हर कदम पर मौजूद है, पूरे निखार के साथ ।  खेती- किसानी भी कथा प्रवाह में उपस्थित है कथा को " सुन्नैर" बनाती हुई। कहते हैं जो अच्छी रचना होती है, वो अपने समय का इतिहास दर्ज़ करती चलती है । इश्क़ में माटी सोनायह काम बखूबी करती है । जब कथा दिल्ली में रहती है, तो वहाँ व्यक्तिगत अनुभव ज्यादा सक्रिय हैं । लेकिन जब कथा गाँव पहुँचती है वह व्यक्‍तिगत से समाज-गत होने लग जाती है – अपनी समस्याओं, परिस्थितियों, आकांक्षाओं, अपने मान- मनुहारों में । यह शहर और गाँव के समाज के चरित्र को अंकित कर देता है । राजनीति के प्रति जागरुकता भी गाँव के माहौल में उभर कर सामने आती है । कथा का यह ताना-बाना हमारे मानसिक- सामाजिक बुनावट को पकड़ने और दर्ज करने की सार्थक कोशिश करता है ।

  

जैसा कि ऊपर भी कहा गया है कि इस किताब में मानो कहानी और नज़्म की मुलाकात हो गईहै । किताब को पढ़ते समय कथा की कवितात्मकता हमारे साथ चलती है और हमें बाँध कर रखती है । जिस तरह कविता यह माँग करती है कि पाठक धीरे- धीरे उसका स्वाद ले, इश्क़ में माटी सोना भी ठहर कर स्वाद लेने का आग्रह करती है । और फिर वह स्वाद मुँह में बैठ जाता है, बहुत- बहुत देर के लिए । इसलिए भी इश्क़ में माटी सोनाने पिछले 6 सालों में कहाँ तक का सफ़र किया है, उसको जानना बहुत ही दिलचस्प होगा । फिर, लेखक की जिम्मेदारी लिखते रहना भी तो है !

बुधवार, 22 सितंबर 2021

मजनू का टीला


 


मजनू के टीले पर राज शेखर

 

मजनू संज्ञा भी है, विशेषण भी है और कभी- कभी क्रिया भी !  आप भी सोचिए । चर्चा की जाएगी आगे ।

 

दिल्ली में है दिल्ली विश्‍वविद्यालय यानी कि नॉर्थ कैम्पस । उसके पास एक इलाका है जिसका सरकारी नाम रख दिया गया है न्यू अरुणा नगर लेकिन लोग जिस नाम से उसे पहचानते हैं वो है मजनू का टीला। लैला- मजनू वाले मजनू नहीं, बल्कि एक सूफ़ी संत । कहते हैं मजनू के टीले के धागे एक सूफ़ी फ़कीर, एक सिख गुरु से लेकर तिब्बती संस्कृति से बँधे हुए हैं । होने को तो मजनूँ का टीला थोडा बदनाम भी है । लेकिन यही मजनू का टीला राज शेखर, हमारे और आपके राज शेखर के लिए उम्मीद का दूसरा नाम है । वे कहते हैं मजनू का टीला हमेशा मेरे लिए एक उम्मीद का दूसरा नाम लगता है मुझे वो । जब मैं वहाँ पचास- साठ साल की किसी महिला की आँखों में देखता हूँ वो धूप जिसमें कि वो अपने संदूक से कपड़े निकाल कर सुखाती है कि शायद किसी दिन उनका देश तिब्बत आज़ाद हो जाएगा और वो वहाँ लौट जाएँगे तो मुझे उस धूप की याद आती है हमेशा मजनू का टीलासे फिल्मों के गीतकार राज शेखर अपनी बात, अपनी तरह की बात करने के लिए आ पहुँचते हैं मजनू के टीलेपर । दिल्ली वाले मजनू  के टीले पर नहीं, बल्कि इस पर, जैसा कि वो कहते हैं –

 

            ये जो कुछ भी है

              कविता

              कविता- कहानी के बीच की

              कुछ चीज़ें

              कुछ घटनाएँ

              संस्मरण

              बतकही

              इस सब को एक नाम दिया है –

              मजनू का टीला

 

मजनू का टीला एक कार्यक्रम है जिसे राज शेखर स्वरूप भात्रा के साथ मिलकर प्रस्तुत करते हैं । ज्यादातर इसमें राज शेखर की लिखी हुई कविताओं की प्रस्तुति होती है । स्वरूप इस प्रस्तुति में संगीत के स्वर भरते हैं अपने गिटार से और कभी- कभी गायन से । फिल्म निर्माण की बंदिशों के बाहर राज शेखर का कवि मन अपने इसी मजनू के टीले पर आकर आराम करता है, उडान भरता है नए क्षितिजों की तरफ़ । आज कविताएँ मनों नहीं टनों के हिसाब से लिखी जा रही हैं । उनमें अच्छी कविताओं का प्रतिशत कितना होता है, कहने की आवश्यकता नहीं । और उन कुछ अच्छी कविताओं में कितनों का पाठ,  खुद कवियों द्वारा भी, अच्छे से निभ पाता है, इसको भी अलग से कहने की जरूरत नहीं । अमिताभ बच्चन ने हरिवंश राय बच्चन की कविताओं का पाठ किया है, जो एक रिकॉर्ड के रूप में आया था बच्चन की आवाज़ में बच्चन। उस बारे में हरिवंश राय बच्चन की टिप्पणी की थी - कविता लिखना कला है तो कविता पढ़ना भी कला है । अच्छी कविता यदि अच्छी तरह से पढ़ी जाए, यानी कलापूर्ण ढंग से, तो निश्‍चय वह अधिक प्रभावकारी सिद्ध होगीमजनू का टीलामें प्रस्तुत कविताएँ लिखने और पढ़ने दोनों ही कलाओं के कारण मन मोह लेती हैं । अच्छी कविता की अच्छी प्रस्तुति ।

 

राज शेखर ने कहा है कि मजनू का टीलाकविता- कहानी के बीच की भी कुछ चीज़ है । कहानी सुनाने वाला तत्त्व उनकी कविताओं में आसानी से लक्षित किया जा सकता है । और मजनू का टीला की प्रस्तुतियों में आप आसानी से इस बात को देख सकते हैं कि सिर्फ एक कहानी कहने वाला ही नहीं फिल्मों का एक निर्देशक भी वहाँ उपस्थित है । वे जिस तरह से पाठ के प्रवाह को संचालित करते हैं , जिस तरह से संगीत का इस्तेमाल किया जाता है वह आपके सामने एक पूरी पिक्चर को सामने रख देता है । उनकी कविताओं के शीर्षक भी इस बात की तस्दीक़ करते हैं । कुछ उदाहरण  - प्रेम बारिश और इन्‍क़लाब’ , ‘ Once in a Blue Moon’,  नमकीन हवा’, ‘ यक़ीन। कविता की छंदों से मुक्‍ति के बाद कविता के पाठ, उसकी अदायगी का महत्त्व बहुत बढ़ गया है । छपी हुई कविता को पढ़ते समय लय को पकड़ पाना आसान नहीं है । और यह भी तय है कि लय में भी कविता के अर्थ के कुछ हिस्से छिपे होते हैं । इसीलिए किसी कवि से उसकी कविता का पाठ सुनना एक अलग ही अनुभूति देता है । ऊपर चर्चा की गई कविता प्रेम बारिश और इन्‍क़लाबकी कुछ पंक्‍तियाँ ऐसी हैं ‌–

 

            पता है मुझे

            कविता से

            कम से कम मेरी कविता से

            न निज़ाम बदलता है

            न प्रेमिका मानती है

            न ही बादल आते हैं

 

            बहेलिया नहीं बदलता अपना मन

            कुल्हाड़े लिए हाथ नहीं रुकते

            कोई इन्‍क़लाब कहाँ आ पाता है

            इन कविताओं से ?

 

इन कविताओं को सिर्फ पढ़ते हुए जो अर्थ और भाव पकड़ में आते हैं, वही जब इसको आप यूट्यूब पर प्रस्तुत किया जाता देखते हैं तो उसका एक अलग ही असर, अलग ही रंग चढ़ता है ।

 

राज शेखर की कविताओं को देखते- सुनते और बाद में फिर गुनते हुए इस बात पर ध्यान जाता है कि वे लगातार उम्मीद की उस धूप की तलाश, उसकी उम्मीद में हैं जिसकी चर्चा वो मजनू का टीलाकी बात के साथ करते हैं । ऐसी कुछ पंक्‍तियाँ देखी जा सकती हैं – क्या पता / अगर ज़िंदा रह गया/ तो/ प्रेम बारिश और इन्‍क़लाब/ सब आ जाए किसी दिन    ताकि सूखती धोती पर / एक बाबा और पोते के बीच / बातचीत हो अपने पुरखों पर । या फिर यह पंक्ति और माँ/ जब पचफोरन से दाल छौंकती है/ तो लगता है/ सब ठीक हो जाएगा । उम्मीद की धूप बार- बार जगह- जगह राज शेखर की कविताओं में आती रहती है।

 

राज शेखर की कविताओं में संगीत के लिए खास जगह रहती है । लगता है कि राज शेखर एक निर्देशक की नज़र से अपनी कविताओं और उनकी प्रस्तुति को भी देखते हैं । इस कारण उनकी प्रस्तुति एक अपनी संपूर्णता, अपने पूरे पैकेज के साथ उपस्थित होती है । कई कविताओं में स्वरूप के गुनगुनाने के अंश होते हैं जो कविता को और भी मार्मिक बना देते हैं । Once in a Blue Moon   के अंत में बांग्ला गीत की कुछ पंक्तियों को स्वरूप द्वारा गुनगुनाना या फिर किसी लंबे सूने रस्ते पर के अंत में ओ निर्मोहीका गुनगुनाया जाना । सब ठीक हो जाएगाकविता के अंत में स्वरूप छठ के गीत की धुन गुनगुनाते हैं, यह भी इस छोटी -सी कविता को भाव-विस्तार देता है । जिस पैकेज की बात कर रहा हूँ , उसके एक शानदार उदाहरण के लिए कम से कम एक बार जंतर मंतर पर लोरीको ज़रूर सुनना चाहिए । यूट्यूब पर उपलब्ध है । उसमें भी अगर GIFLIF वाला वीडियो देखा जाए तो उस असर को ज्यादा समझा जा सकेगा जो राज शेखर की यह कविता/ गीत या कहानी बल्कि क्या नहीं, मन पर डालती है ।  कुइयां-मुइयां गीत भी इसी तरह का है । इसकी संगीतात्मकता देखने योग्य है । इसकी चार पंक्तियों को पेश करने का लोभ संवरण नहीं हो पा रहा –

 

                  चंदा के पंजे में

                  मेघों का छत्‍ता है

                  छत्‍ते में मम मम मम

                  महुए का पत्‍ता है

                  पत्‍ते से हरे भरे

                  टहनी वाले पेड़ हम    

 

ऊपर कहा गया है कि मजनू संज्ञा भी है, विशेषण भी और कभी- कभी क्रिया भी । बृहत् हिन्‍दी शब्दकोश बताता है कि मजनू संज्ञा है यानी प्रेमकथा लैला- मजनू का नायक । मजनू विशेषण भी है जिसका अर्थ हुआ पागल, बावला, आशिक, किसी पर मर मिटने वाला । शब्दकोश यहीं पर रुक जाता है । अब इसे हम मजनू का टीला से जोड़कर भी देखें । एक मजनू का टीलावो है जो दिल्ली में है यानी कि संज्ञा । एक मजनू का टीलाराज शेखर का जो कि अब विशेषण हो गया है । अपने हुस्नो- अंदाज़ की वजह से । अब रही बात क्रिया बनने की । मजनू होना या मजनू- सा होना/  दिखना अलग बात है लेकिन कभी- कभी आदमी मजनू बनता जाता है, मजनू बना रहता है यानी कि वह कर्म नहीं क्रिया हो जाता है । ठीक वैसे ही राज शेखर मजनू का टीलाबनाते हैं, बनते हैं , बने रहते हैं – वर्क इन प्रोग्रेस। संज्ञा या विशेषण हो जाना, रूढ़ हो जाना है जो कवि राज शेखर को पसंद नहीं । तभी तो वे कहते हैं –

           

            मैं प्रतिक्रिया था

            अब संज्ञा हूँ

            मेरा विशेषण बन जाना

            मेरी उपलब्धि होगी

            पर मुझे विशेषण नहीं बनना

            क्रिया होना है

            क्योंकि वो मेरी संभावना है

            और

            हम सब में

            ये संभावनाएँ हैं !

 

इसी संभावना, इसी धूप की याद उन्हें मजनू का टीलासे आती है और हमें उनके मजनू के टीले से।

 

पुराने कवियों के बारे में सुनता था कि फक्कड़पन और मस्ती उनका स्वभाव होता था। राज शेखर ने भी क्या वही स्वभाव पा लिया है? न कविताओं को सामने लाने की तत्परता , न उन्हें सँजोने की सजगता । इनका जो मजनू का टीला है या और भी जो कविताएँ हैं वो ऐसे ही बिखरी पड़ी हैं , यूट्यूब पर , ट्विटर पर, फेसबुक पर । ऐसी ही एक बहुत खूबसूरत कविता छठपर है । उसे ढूँढ कर सुनिएगा । क्या ऐसी कविताओं को सँजो कर नहीं रखा जाना चाहिए ? लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि राज शेखर किसी ह्ड़बड़ी में, किसी आतुरता में आ जाएँ । वे खुद भी इस बात को भली-भाँति समझते हैं । अपनी एक कविता में अपने पाठकों, श्रोताओं, दर्शकों से वे कहते हैं – ... पर आज तुमने एक शर्त रखी/ तभी मिलेगा तुम्हारा प्यार/ तभी बना रहूँगा/ तुम्हारा कलाकार । फिर इसी कविता में आगे कहते हैं – तो मैं इन्‍कार करता हूँ/ इस एकतरफा/ मोल-भाव से, बारगेन से/ मुझे तुम्हारी शर्तें कबूल नहीं हैं । लेकिन वे अपने पाठकों के प्रति प्रतिबद्ध हैं , तभी इस कविता के अंत में वे कहते हैं –

 

            तुम जानो

            क्या रिश्ता रखना है मुझसे

            मेरी बात और है

            मैंने तो मुहब्बत की है !

 

 

किसी कवि को सँभालना पाठकों, श्रोताओं का भी काम है और प्रकाशकों का भी । यह बात समझ लेने में देर नहीं की जानी चाहिए ।

 

 Begaluru Poetry Festival, 2016 से मजनू का टीलाकी औपचारिक प्रस्तुति शुरू हुई । फिर बहुत सारी जगहों, बहुत सारे मंचों तक यह मजनू का टीला पहुँचा । कोरोना के लॉकडाउन के पहले मुम्बई के प्रतिष्‍ठित पृथ्वी थियेटर में इसकी दो हाऊसफ़ुल प्रस्तुतियाँ हुईं । उम्मीद करें कि अब स्थितियाँ बेहतर होती जाएँगी और यह भी कि कवि भले ही फक्कड़ हो जनता उसके प्रति लापरवाह नहीं होगी । उम्मीद की गवाही देती राज शेखर की इन पंक्तियों के साथ आपको छोड़ जाता हूँ ‌ -

                    यक़ीन

                  सबसे स्याह रात के पूरब से

                  आएगा सबसे लाल सूरज

                  बस, तुम्हारी उम्मीद भरी आँखों के लिए ।

 

अंत में एक डिस्क्लेमर कि कविताओं के जो उद्धरण ऊपर दिए गए हैं , उन्हें सुन कर लिखा गया है , इसलिए पंक्तियों का संयोजन इन पंक्तियों के लेखक के हिसाब से दिया गया है ।

 

 

 

 


गुरुवार, 18 मार्च 2021

कुली लाइन्‍स

 



कुली लाइन्‍स : डॉ प्रवीण कुमार झा

 

कहते हैं हर किताब को पढ़ने का एक वक्‍त होता है । और यह किताब ही तय करती है कि आप उसे कब पढ़ेंगे । कुली लाइन्‍स’ – इस किताब के नाम, उसके कवर, उस पर पढ़ी हुई टिप्पणियों ने किताब को पढ़ने की इच्छा पैदा कर दी और जनवरी 2020 में किताब मँगा भी ली गई । लेकिन पढ़ी गई अब यानी मार्च 2021 में । आलस और धीरज हर जगह काम करते हैं – लिखने में भी, पढ़ने में भी !

करीब दो सौ सालों की कथा कहती किताब । कथा ही, इतिहास नहीं । जो बातें कही गई हैं, उनको आज के समय में सच मान लेना बड़ा मुश्किल- सा लगता है । ऐसा भी होता होगा ?

दूसरे यह किताब किसी इतिहासकार द्वारा नहीं लिखी गई है , इस कारण इतिहास पढ़ने की टेक्स्टबुकीयनीरसता से आप बचे रहते हैं ।

पाठक को जो चीज प्रथमदृष्‍टया खींचती है , वो क्या है ?

किताब का नाम – कुली लाइन्‍स’ , जो अपने आप में एक इतिहास समेटे हुए है पर किसी आधुनिक उपन्यास के शीर्षक-सा प्रभाव पैदा करता है । कुली लाइन्‍स पढ़ते हुए एक ऐसा ही शब्द मन में उभरता है – सिविल लाइन्‍सकुली लाइन्‍स’ , गाथा गिरमिटियों की । तो क्या उनके लिए हमारे यहाँ सिविल लाइन्‍सऔर हमारे लिए उनके यहाँ कुली लाइन्‍स’?

फिर कवर का डिज़ाइन – हैंड मेडपेपर का आभास देता कवर । एक उतने ही भावपूर्ण चित्र के साथ ।

किताब का आकार – 270 पृष्‍ठ ( परिशिष्‍ट छोड़कर) जो पाठक के धीरज पर बोझ नहीं डालते ।

 लेखक , डॉ प्रवीण कुमार झा, आपको ले कर चलते हैं कई-कई देशों- द्वीपों की यात्राओं पर । आज जो इंडियन डायस्पोराएक चमक-दमक की छवि देता है उससे एकदम अलग ।

किताब की भूमिका में लेखक ने लिखा है – मैंने उत्तर कम ढूँढे हैं, प्रश्‍न अधिक । इस किताब के कथा-प्रवाह में बहते हुए पाठक के मन में भी प्रश्‍न उठते चलते हैं । कई बार तो आज की परिस्थितियों से तुलना करते हुए पाठक सोचने लगता है – स्थितियाँ जस की तस ही हैं ।

 

इतने लंबे काल-खण्ड और इतने सारे देशों में मजदूरों को ले जाने से जुड़े तथ्यों को ढूँढना एक श्रम-साध्य काम रहा होगा। फिर उन सबको कथा के रूप में पिरोना तो और भी । कथा कहने का ढंग इतना सजीव है कि पाठक खुद को उन पात्रों- परिस्थितियों में पाने लगता है । बीच-बीच में लेखक के प्रश्‍न भी हैं जो इस तादत्म्य को और भी बढ़ा देते हैं, मसलन, “आखिर कैसे कष्‍ट रहे होंगे जिन्हें पढ़कर ही मृत्यु हो जाय?”   लेखक की भाषा और शैली ऐसी है मानो वह इन सारी यात्राओं का साक्षी रहा है ।

अभी हाल में विश्‍व महिला दिवसगुजरा है । इस किताब को पढ़ते समय एक बात जो बार-बार आपको सोचने को मजबूर करती है वह है स्त्रियों की दशा । और फिर आप सोचने लगते हैं कि आखिर बदला क्या है ? सिर्फ तारीख ! क्या स्त्रियाँ आज भी, अपने देश में ही, ‘गिरमिटियाही हैं ? सारी तरक्की के बावजूद । लेखक ने कहा ही है प्रश्‍न अधिक ढूँढे हैं । लेखक का विचार सामने आता है विवाहित महिला क्यों घर से भागी , इसके तमाम कारण हो सकते हैं । वे कारण आज भी कमोबेश हैं

एक और बात को यह बात रेखांकित करती है कि जहाज पर चढ़ने के पहले ही जहाजियों की जाति छूट जाती थी । जाति का आग्रह साथ चलता नहीं था । शायद एकजुट होकर सहने और लड़ने के लिए जातियों की आवश्यकता ही नहीं । और धर्म की भी । एक ही परिवार में अलग-अलग धर्म को मानने वाले लोग भी हो सकते हैं ।   

इस किताब को पढ़ते हुए एक और बात पर ध्यान जाता है । सबसे ज्यादा मजदूरों की खेप बिहार और उत्तर प्रदेश के इलाकों से गई । वहीं गुजरात से लोग व्यापार करने के लिए गए, उस समय भी । क्या बिहार और उत्तर प्रदेश के पिछ्ड़े होने के कारण बहुत पुराने हैं ? क्या वर्तमान में बिहार से देश के दूसरे हिस्सों में मजदूरों के पलायन के बीज तभी के पड़े हैं ?

अलग-अलग देशों में, अलग-अलग परिस्थितियों में लोगों द्वारा अपनी भाषा और सँस्कृति को ज़िंदा रखने के प्रयास जड़ों से जोड़ने का काम करते हैं । क्या इन्हीं बातों से सीखकर हम अपनी बोलियों के संरक्षण और संवर्द्धन के लिए कुछ ज्यादा काम नहीं कर सकते ?  

किताब बहुत सारे अनकहे प्रश्‍न भी करती है ।

हिंदी में कथेतर लेखन थोड़ा कम हुआ है । हालाँकि इधर के कुछ सालों में चलन बढ़ा है । इस तरह के विषय पर यह एक जरूरी किताब है । बौद्धिकता का ह्ल्ला न मचाते हुए यह किताब हमें अपने एक ऐसे इतिहास से वाकिफ कराती है जिस पर कम लिखा गया है । लेखक ने इतिहास की बातों को , जहाँ तथ्यों की प्रस्तुति एकरसता पैदा कर सकती है,  हमारे लिए सहज-सुगम कथा-कहानी वाली भाषा में रखा है , उसके लिए वे बधाई और धन्यवाद के पात्र हैं । ऐसी किताबों से हिंदी के पाठक बढेंगे, ऐसा विश्‍वास है ।

 

भोलाराम जीवित [ भगत -बुतरू सँवाद 2.0]

  भोलाराम जीवित [ भगत - बुतरू सँवाद 2.0] वे भोलाराम जीवित हैं। पहले के जमाने में आपने भी इस तरह के नाम सुने होंगे-- कप्तान, मेजर आदि। जरूरी ...