Disclaimer : प्रस्तुत कथा सर्वथा सर्वथा काल्पनिक है । किसी भी मृत या जीवित गधे या घटना से कोई भी समानता सर्वथा संयोग- मात्र है ।
गधा – राग
समय का चक्र अनवरत चलता है । और सुनते हैं युग-दर-युग लौट कर आते हैं । जो हो चुका है वो फिर होगा और जो होने वाला है वो हो चुका है । यह कथा या बहुत पहले की है या फिर सुदूर भविष्य की ।
बहरहाल,ये उस समय की बात है जब जीवों की योनि जन्म से नहीं कर्म से तय हुआ करती थी । जीव कभी इंसान, कभी थलचर, कभी जलचर हो जाया करते थे आवश्यकतानुसार । उस समय संसार में जनसंख्या बहुत थोड़ी थी और सभी अपनी – अपनी योनि में अपने-अपने काम करके सुखी थे । यों तो सभी जीवों की अपनी उपयोगिता होती है पर अपने अद्वितीय किस्म के मेहनती होने के कारण गधों ने बहुत नाम कमाया हुआ था । हम अभी भी कहते हैं गधों की तरह काम कर रहा है । हो सकता है हम अभी इसे उपहास की बात समझते हों ,पर तब ऐसा नहीं था ।
अब काम तो गधे किया करते थे । आदमी पिछड़ने लगे सुविधाओं की प्राप्ति में । यों तो योनि कर्म के हिसाब से मिला करती थी, लेकिन जिनको पहले गधा बना दिया गया वो फायदे में थे ।
तब आदमियों ने एक बैठक बुलाई । उसमें यह चर्चा हुई कि आखिर क्या वजह कि गधे ऐश कर रहे हैं ? बैठक में यह तय पाया गया कि गधों की इस सफलता के कारणों का पता किया जाए और अगली बैठक में निर्णय लिया जाएगा कि करना क्या है । चार आदमियों की एक समिति बनाई गई । समिति ने गधों के ग्रुप का अध्ययन किया और एक पखवाड़े बाद सभा के सामने अपनी रिपोर्ट रखी ।
रिपोर्ट सिर्फ एक पंक्ति की थी :-
“ हम सबको गधा बनना होगा” ।
फिर जैसा कि होता था , रिपोर्ट पर बहस हुई ।
एक आदमी ने कहा कि गधा बनने की आवश्यकता क्यों ? हम सभी जीवों का बराबर का अधिकार होना चाहिए ।
रिपोर्ट तैयार करने वाले एक सदस्य ने कहा – बिना गधा बने कुछ नहीं होगा ।
वही आदमी – गधे मिहनत ही तो करते हैं ।
रिपोर्ट वाला – नहीं, गधों जैसी मिहनत करते हैं ।
मतलब?
मतलब कि बस खटते हैं । दिमाग नहीं लगाते ।
लेकिन आदमियत का क्या होग? उसकी संवेदनाओं का क्या होगा ?
संवेदनाओं का काम ही क्या है भाई? कमाओ, खाओ, ऐश करो ।
आदमी की भावनाएँ भी तो होती हैं कुछ । ऐसा नहीं हो सकता कि सिर्फ काम करना ज्यादा कर दें, बाकी आदमियत बचाए रखें ।
रिपोर्ट वाला – गधा मतलब गधा । सोचना आपको है ।
आदमी – लेकिन एक रियायत तो दें ।
क्या?
हमें अपनी शक्लो-सूरत बचा कर रखने दें । वैसे भी एक बार योनि बाँट दी गई है, चेहरा, शरीर रहने दें । मन से पक्के गधे बन जाते हैं ।
तो इस तरह से आदमी के गधा बनने की शुरुआत हुई ।
फिर संख्या बढ़ती रही । सुविधाएँ और काम भी ।
शुरु-शुरु में तो गधे अपना काम करते थे, अपनी घास खाते थे, सुख से रहते थे । फिर जब काम बढ़ने लगे तो कुछ गधों ने थोड़ा ज्यादा-ज्यादा करके कुछ संपत्ति अर्जित कर ली । फिर धीरे-धीरे करके कुछ बड़े गधों ने कंपनियाँ खोल लीं और छोटे गधों को काम पर रखना शुरु कर दिया।इस तरह से नौकरी करने- कराने की प्रथा शुरु हुई ।
बड़े गधों ने, चूँकि उन्होंने थोड़ा पहले काम करना शुरु कर दिया था और उनके पास कुछ ज्यादा अनुभव और ज्यादा मौके थे, ये अच्छी तरह जान लिया था कि गधे जब तक पूरी तरह गधों की तरह काम करते रहेंगे , कमाई होती रहेगी, फलत: मुनाफा । गधे को थोड़ी ढील दी जाए तो उसमें आदमियत का कीड़ा कुलबुलाने लगेगाऔर बोझ ढोने के अलावा और भी बातों पर ध्यान देने लगेगा । यहाँ तक कि बोझ ढोने के औचित्य पर प्रश्न कर बठेगा । गधे को गधा बनाए रखना है तो बोझ बराबर बनाए रखो । साँस लेने तक की फुर्सत न दो । न रहेगा बाँस , न बजेगी बाँसुरी ।
तो बोझ बना रह, गधे गधे रहे ।
और सहूलियत भी इसी में थी सबकी ।
फिर डारविन का सिद्धांत काम करता रहा । चीज़ें वंशानुगत होती गईं । पीढ़ी-दर-पीढ़ी रिसता रहा गधापन ।
हालात कुछ ऐसे हो गए कि गधे तो गधे थे ही , आदमी कौन गधा है या कौन गधा नहीं है, फर्क करना मुश्किल हो गया ।
गधों की माँग बनती रही । बढ़ती रही ।
आदमी जब जन्म लेता था तो आदमी रहता था । फिर पूर्व जन्म के संस्कार, सुरक्षित भविष्य की कामना और वक्त उसे गधा बनाते रहे । जिन आदमियों में आदमियत बच बी गई वो गधों से भरे-पूरे संसार में गधे हो के रह गए । आदमी जब कुछ पक के तैयार होता था तो सामने गधों वाला रास्ता ही दिखता था । जानता समझता था भी तो उलझने की कुव्वत नहीं थी । सोचता था चलो एक बार घुसो तो सही, अंदर से सिस्टम को बदला जाएगा । काहिलपन और कायरता पीढ़ियों के बाद भी मिटी नहीं थी । असली नस्ल के गधे पिछडने लगे । ‘कनवर्ट’ गधे बाजी मारते रहे । वैसे भी ‘हाइब्रिड’किस्म ज्यादा उत्पादक होती है । स्वाद दे न दे । वैसे स्वाद तो मानने की बात है !
फिर ऐसा समय आया, पता नहीं किसके लिए अच्छा,किसके लिए खराब , कि गधे भी चिंता में पड़ गए अस्तित्व एवं अस्मिता की !
अबकी उन्होंने बैठक बुलाई और यह तय किया गया कि पहले कुछ केस स्टडी की जाए फिर आगे सोचा जाए । कुछ नुमाइंदे चुने गए और उनको जिम्मा सौंपा गया । नुमाइदों ने महीनों मेहनत की, जगह-जगह घूमे,साक्षात्कार किए और रिपोर्ट पेश की । ( अलग अलग नुमाइंदो ने सभा के पटल पर विभिन्न शीर्षकों वाले कथानुमा रिपोर्ट/ केस स्टडी पेश किए जिनका बाद में पुस्तकाकार रूप में प्रकाशन भी हुआ और बड़ा मकबूल भी रहा ।)
जिन रिपोर्टों का पाठ किया गया उनके अंश नीचे उद्धृत हैं ।
बनना है गधा बनते बनते
गधों की जमात में एक नया कनवर्ट शामिल हो रहा था । हर इलाके में तो नहीं, पर ज्यादातर इलाकों में गधों की फसल तैयार हो रही थी । दूसरी किसी योनिकी माँग थी ही नहीं । बल्कि बाकी किसी योनि के लिए माहौल अनुकूल नहीं था । खैर । साहब जिसने उमर भर ये तैयारी की हो कि यूँ होगा तो ऐसा होगा ,उसकी हुलस का क्या कहना । उमर से थोड़ा बढ़ के भी , दाखिला मिलते ही चल पड़े जनाब मौके पर हौसले के साथ ।
परंतु प्रथम ग्रासे मक्षिका पात: ।
भाई आप भले ही मानते हों कि बड़ा तीर मारा हो, आपको झेलने वाला भी यही सोचे ज़रूरी तो नहीं । जिसने लाख गधे देखे हों ....।
रिपोर्ट करने के तुरत बाद मुखिया गधे ने ईकाई के एक पुराने गधे को बुलाया और ने रंगरूट को उसके हवाले करते हुए कहा कि अपना काम सिखा दे । दो-एक दिन तो लाजो-लिहाज में बीत गए , फिर एक दिन रंगरूट ने जाकर मुखिया से आहत स्वर में आपत्ति जताई कि साहब मैं तो डायरेक्ट गधा बहाल हुआ हूँ, मुझसे ऐसे छोटे काम नहीं होंगे और वो भी उस छोटे गधे के नीचे ।
मुखिया ने समझाया – देखो भाई, वो हमारे संस्थान के गिने-चुने असली गधों से है । असली क्वालिटी तो वही बता सकता है । और देखो ऊपर जाना है तो परफेक्ट गधा बनने की सोचो । ऊपर जाना है न ?
जी ।
तो जरूरत तुमको पड़ी है.....समझे ।
ज्ञान की बातें सुनकर , बुझे मन से ही, रंगरूट असली गधे की शरण में गया । असली गधे को भी तरस आ गया और उसने कुछ भयंकर ज्ञान की बातें सुझाईं । बातों का सार कुछ इस तरह से है –
1. इस संसार में , कम से कम इस देश में, एक जादुई शक्ति वाला शब्द है “ सर” । इसका जितना ही व्यापक प्रयोग करोगे,खुश रहोगे।
2. तुम्हारी उम्र? – 25 बरस । - तो फिर 35 बरस के लिए अपनी रीढ़ की हड्डी को अपने साथ लाए संदूकमें बंद कर दो। सुखी रहोगे । तरक्की करोगे ।
3. या तो ‘थैंक्यू’ बोलो या ‘सॉरी’ बोलो। बल्कि थैंक्यू एक बार बोलो तो सॉरी चार बार बोलो। सही कभी मत बोलो। प्रतिप्रश्न कभी मत करो । प्रिय रहोगे।
4. एक बार आगे बढ़ जाओ तो पीछे वालों को देखो मत । साथ वालों की सुनो मत । बस ऊपर वालोंकी सुनो, निभाओ। बढ़ते रहोगे ।
रंगरूट बातों को आत्मसात करने में लगा था । बेसाख्ता वो पूछ बैठा कि इतना सब जानते हैं तो फिर आप यहीं क्यों हैं ?
क्योंकि मैं गधा हूँ । यह कह कर पुराना गधा चल दिया ।
खैर रंगरूट ने सफलता के सूत्र साध लिए । अब 12-13 बरस के बाद कमोवेश सूत्रों का पालन करते हुए उच्च कोटि का न भी तो मध्य कोटि का गधा हो चुका है । कभी कुछ चूक हो भी जाती है तो सूत्र न. 3 का प्रयोग बढ़ा के बच निकलता है ।
टाई वाला गधा
विगत कुछ वर्षों में, यही कोई दो-तीन दशकों में चलन में बदलाव आ गया है । जब से गधों की माँग बढ़ गई है, आपूर्त्ति दूनी-चौगुनी हो गई है । वैसे भी माल्थस का सिद्धांत हमारे यहाँ काम कर चुका है ।
आपूर्त्ती बढ़ती है तो चयन के बात स्वाभाविक हो जाती है । गुणवत्ता और मूल्य दोनों शक्तियाँ सबल रूप से कार्यमें लग जाती हैं । गुणवत्ता के मापदंड तय किए जाते हैं । फिर सीनियॅरिटी भी ध्यान में रखी जाती है कभी कभी । अच्छा, वैसे भी आम से खास हो जाना,होना नहीं लगना ही तो असली बात है ।
गुनवत्ता की प्रतीक चुनी गई टाई।
टाई लगाने का मतलब है – आप एक खास संवर्ग के प्रतिनिधित्व के अधिकारी हो गए हैं,प्रभुत्व आपका अधिकारहो गया है । हुक्म फरमाना काम, और काम न करना विशेषाधिकार ।
टाई लग गई तो चाढ़ाई करने वालो में शामिल ।
टाई लगते ही चेहरे पर जो एक विशेष भाव आ जाता है “ .... हम हैं तो खुदा भी है “... उसकी आभा का क्या कहना । चेहरों के दर्शन मात्र से ही लालसा जागने लगती है कि काश....!
और देखा जाए तो टाई उम्मीद है इस बात की कि कभी सूट भी मिलेगा ।
फिर टाई गले को दबा के रखती है कि आवाज़ निकले ही नहीं, खास तौर पर “ना” । वो भी ऊपर की ओर । हाँ,अगर नीचे जानी हो तो बम क्या, तलवार क्या,ज़हर क्या – सारे काम एक से ही सिद्ध ।
टाई ने एक काम और भी आसान कर दिया है । टाई बदलो तो प्रतिबद्धता और वफादारीके किस्से भी आपरूपी बिना किसी जद्दोजहद के बदल सकते हैं ।
नए युग और नई पीढ़ी के गधों टाई की महत्ता को समझा है , बल्कि बड़े-बड़े शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थान हैं जो टाई की महत्ता और उपयोग को साधने के तरीके बताते हैं ।
अब नए युग के गधे सिर्फ टाई का खयाल रखते हैं, अब चाहे वो जहाँ की हो और उसके गुणों का आस्वादन करते हैं ।
टाई वाले गधों के पास हमेशा ये जानकारी होती है कि औरों को क्या काम करना चाहिए या वो क्य कर सकते हैं ।
जो कुछ पुरानी किस्म के गधे हैं वो चुपचाप भार ढो रहे हैं, घास खा रहे हैं , जी रहे हैं, हुकुम उदूली कर रहे हैं । - टाई वाले ये सब करवा रहे हैं ।
हमको अपना पता मालूम है
गधे का चलन चले कुछ युग बीत चुके हैं । हर जगह गधे व्याप रहे हैं ।
बड़े सुकून , बड़ी शांति के दिन हैं ।
बड़े ही सदाचार का समय हो गया है । सारे के सारेएक अदृश्य डोर से बंधे हैं । रिश्वत शब्द ने अपने अर्थ खो दिए हैं । रिश्वत रिश्वत न रही ।
बड़े आराम से हर बात होती है ।
एक रोज़ एक ‘सर’ के दफ्तर में बैठा था । सर अपने किसी सर की सहृदयता की चर्चा बड़े भाव विभोर हो के कर रहे थे – सर को किसी ने मेरे खिलाफ भड़काने की कोशिश की थी । सर ने कहा मालूम है कहाँ खा सकता है, कहाँ नहीं और कितना। बताईए भला सर को क्या पड़ी थी मेरे बारे में ऐसे उच्चविचार रखने और प्रदर्शित करने की ।
दफ्तर ही पूरा धन्य धन्य हुआ ।
एक बार एक इलाके में घास की किल्लत हो गई । फिर सरकार की तरफ से घास वितरण के लिए अनुदान आया । कुछ गधे घास लेनेके लिए दफ्तर पहुँचे । वहाँ के ‘सर’ ने बताया कि माल की कमी की वजह से सूखी घास उपलब्ध है,वही ले कर काम चलाईए। लेकिन जब अनुदान प्रपत्र पर दस्तखत कराए गए तो हरी घास की दूनी मात्रा के लिए ।
जब कुछ कहा गया तो जवाब मिला – आप तो दस्तखत करिए। हमकोभी अपना पेट पालना है। हमको सब पता है कहाँ क्या हो रहा है और हम कहाँ हैं ।
इस तरह से केस स्टडीज़ पेश की गईं । आखिर में एक छोटी से केस स्टडी सामने एअखी गई जो युगांतकारी थी ।
हम किसी प्रान्त के नहीं हैं
गधों को ये विश्वास था कि वो सिर्फ गधे हैं और कुछ नहीं । उसी में वो प्रसन्न रहते थे ।लेकिन इधर उनकी सोच में बदलावआ रहा है जो एक नए युग की शुरुआत की आहट देता है ।एक आम-सी होती हुई बात-चीत का नजारा उद्धृत है –
दफ्तर में बड़ी कुर्सी वाला गधा – हाँ , तो आप आए हैं । कहिए क्या काम है?
सामने की छोटी कुर्सी वाला गधा – जी बस आपके इलाके में योगदान दिया है । मेरे लायक कोई सेवा हो तो बताएँ ।
बड़ी कुर्सी – ठीक है, ठीक है । वैसे आपने नाम में सिर्फ गधा लिख के छोड़ दिया है । कहाँ के हैं आप?
छोटी कुर्सी – जी गधों में तो टाईटिल का चलन है नहीं, सो मेरा भी नहीं है । वैसे सर हम सभी इसी प्रान्त के हैं,टाईटिल रख के भी क्य होगा ?
बड़ी कुर्सी – वो तो ठीक है भाई , पर पता भी तो चले कौन किस प्रकार का गधा है । खेती/ज़मीन वाला गधा है, लाठी वाला गधा है, पूजा-पाठ वाला गधा है, कलम वाला गधा है – किस प्रकार का है ?
इस तरह से प्रेज़ेंटेंशन खतम हुआ ।
थोड़ी देर के लिए सभा में सन्नाटा छा गया । जो बुजुर्ग गधे थे उनकी आँख की कोर साफ गीली दिख रही थी । जो नए थे, पक्के गधे थे, उनके हाव-भाव बता रहे थे कि बेबसी क्या चीज़ है ।
फिर एक बुजुर्ग गधे ने कहना शुरु किया –
समस्या तो गम्भीर हो चुकी है । हम असली गधे खतरे में हैं । आपको मालूम हो न हो, एक बार चार्ली चैप्लिन ,चार्ली चैप्लिन जैसा लगने वालों की प्रतियोगिता में खड़े हो गए थे और तीसरा स्थान प्राप्त किया था ।
कहने का मतलब है हमेशा असली चीज़ की ही विजय नहीं होती है । आज हमारा अस्तित्व खतरे में है । हमने आज तक अपनी योनिमें यत्नपूर्वक काम किया है , पर अब संभव दिखता नहीं है।
आप सब जानते हैं हमारी जरूरत तो बड़ी थोडी सी घास है । लेकिन हर तरफ मारा-मारी है । और खास तौर पर जो नए गधे बन गए हैं उनकी वजह से । क्यों न करें कि हम आदमी की योनि धारण कर लें । उनकी ओर से तो इतने सारे गधों में परिवर्तित हो चुके हैं कि उस योनि में रिक्तियाँ बहुत हैं। फिर हमारी जरूरतें भी छोटी हैं, वहीं बसर कर लेंगे आराम से । इस मारा-मारी से तो दूर रहेंगे कि गधा गधे को ही न पहचाने ।
आपकी सहमति हो तो प्रक्रिया शुरुकी जाए ।
सभा में उपस्थित सभी ने हाथ उठा दिए ।
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