बुधवार, 17 अप्रैल 2024

समस्तीपुर, मेरे दोस्त !


 

समस्तीपुर, मेरे दोस्त ! 


कितनी अजब बात है

सदर बाजार, जमालपुर की

एक गली में

छनते हुए गर्म-गर्म

सिंघाड़ों के इंतजार में

खड़े चेहरों को देखकर

समस्तीपुर याद आ गया

समस्तीपुर

अपना समस्तीपुर  ! 


एक चेहरा जो अपना हुआ करता था

वो जो मैं था भी, और नहीं भी था

वो जो किसी एक का, और जो सबका था 

तुममें और हममें तब फर्क कहाँ था  ! 


इतने सालों बाद आज

दिख गया अचानक अनायास

इंतजार कर रहे उन चेहरों के बीच

एक चेहरा जो मैं भी था, जो तुम भी थे

सदर बाजार, जमालपुर की गली में

जहाँ छन रहे थे गरमा गरम सिंघाड़े


क्या था उस चेहरे में आखिर? 

किसी के द्वारा पहचान लिए जाने का तोष

किसी को पहचान लेने का संतोष

निष्कपट, निश्छल जीवन

अहंकार से खाली मन

ना नौकरी की चिंता, न रोटी की फिकर

न मिलने की उत्कंठा, न बिछड़ने का डर

सबकुछ सहज, सरल, सरलतर... 

निरंतर


कुछ था कि छाप रह गई  ! 

छाप रह ही जाती है जब कुछ हो... 

किसी ने किसी को बाँधा नहीं

ना कोई बँधा ही किसी पाश में


मन की तरलता 

इक सहज सरलता 

तर कर जाती है

जीवन तर जाया करते हैं

घर कर जाया करते हैं

नर्मो-नाज़ुक जज़्बात

कोई नज़र, कोई हँसी, कोई बात...! 


    (2) 


इन बीच के बरसों में

गया कुछेक बार मैं

समस्तीपुर 

एक बार गया अपने बेटों के साथ भी

और अपने स्कूल 

सेंट मेरीज़ तक गया, 

यों भी सेंट मेरीज़ और समस्तीपुर पर्यायवाची हैं

बहुत से अर्थों में अपने लिए, 

वहाँ उस स्टेज पर, क्लास रूम के सामने 

बेटे खड़े हुए, जो थे लगभग उसी उम्र के

जिस उम्र का मैं तब था 

स्टेज ने शायद बेटों को पहचाना

क्लास रूम उनको देख मुस्कुराए—

इतने बरस लगाए ! 

गूँगा अब क्या स्वाद बताए !! 


क्यों गया बेटों के साथ ? 

अपने बचपन में बेटों को ले जाना था

उनके बचपन में अपने बचपन को उतारना था 

याकि करनी थी उम्र लंबी अपने बचपन की, जीवन की ?

बिना कहे हम अपने बच्चों में 

अपना जीवन रिवाइंड करते चलते हैं,

रिवाइज़ करते चलते हैं 

और सुधार लेते हैं चुपचाप कुछ अपनी गल्तियाँ भी 

बिना कहे किसी से 


अब पूछते हैं हाल 

सिर्फ एक दूसरे का ही नहीं

जानना चाहते हैं हालचाल बच्चों का भी 

तभी

“तमाम उम्र का हिसाब माँगती है जिंदगी” 

हम ढूँढ़ते हैं हिसाब बीत गई उम्रों का 



     (3)   


फिर रास्ते अलग हुए

एक अंतराल आ गया 

फर्क कहाँ हुआ पैदा

फर्क फर्क भी था कहाँ

जीवन-पथ समतल कहाँ

समरस कहाँ जीवन-सफ़र

कौन चला किस सिम्त को

क्या मंज़िल किसकी चाह बनी

अब पता-मुकाम किसका है क्या

किसकी क्या है गति भयी

नहीं एकरेखीय जीवन-गति, जो हो यदि

तो जीवन नहीं       

                  

कुछ यार हमारे चले गए

गए समय से पहले बहुत--

जीवन अपनी चालें चलता है

खारिज-दाखिल करता है

यादों का काँटा चुभता है 

हर बात पे याद कराता है

सबका नंबर आता है... 


इतना लेकिन याद रहे

नश्वर, क्षणभंगुर जीवन है

और रहे यह बात याद -

क्षण-क्षण, कण-कण में जीवन है 


     (4) 


सुख क्या है -- मृगतृष्णा है

दूर खिसकते चलता है

जितनी मुट्ठी बँधती है

वह उतना ही फिसलता है

उलझन-उलझन गाँठें हैं

गाँठों से भरा हुआ मन है

जितना ही जोर लगाते हैं

गाँठें उतना कस जाती हैं

धीरज से, हल्के हाथों से

गाँठें सब खुल सकती हैं 

मन खुलता है

मन मिलता है

खिलता है मन ऐसे ही 


आओ मिल के ढूँढें, मन

अपना बीता हुआ बचपन

ना कोई शिकायत होती थी, जब

ना कोई आहत होता था

सब छोड़ के अपना छोटापन

और भूल के सारा बड़ा-बड़प्पन

पल जीवन के मधुबन कर लें

चकचक मन-दरपन कर लें

बोझ ना बनें यादें

इतना तो पक्का मन कर लें


उम्र का फासला तय करके

जो जहाँ पर हैं खड़े

और जिधर जो हैं देखते

सामूहिक यह दुआ करें

कहीं कभी जो यदि मिलें

बिन छल कपट, बिन भय संशय

खुले हृदय से मिले-जुलें

खुशी से भले छलकें आँखें

देखें कि चोट न कोई पहुँचे 

दर्द से आँख न रोयी कोई 


"बक रहा हूँ जुनूँ में क्या क्या कुछ

 कुछ  न  समझे  ख़ुदा  करे  कोई"


जो बीत गया

जो मिला नहीं

जो कर न सके

जो हुआ नहीं

मन क्या था

क्या कर बैठे... 

जो जितना है वो कम भी नहीं

'गर अपनी मर्जी कुछ और रही, और रब की कुछ और रही

क्या करना अफसोस  ! 

आखिर क्यों करना अफसोस  ! 

समझो मेरे दोस्त  ! 

समझो मेरी दोस्त ! 


समस्तीपुर, मेरे दोस्त...! 


समस्तीपुर की याद आ गई है

समस्तीपुर की याद आती रहे

बचती रहे जीवन में मासूमियत थोड़ी  !!   


। । । । । 


पोस्ट स्क्रिप्ट : आशंका


अच्छा है अब हम न ही मिलें


मुझसे मिलकर

तुम निराश न हो जाओ


तुमसे मिलकर

मैं खो न बैठूँ

तुम्हारी याद को भी  !

भोलाराम जीवित [ भगत -बुतरू सँवाद 2.0]

  भोलाराम जीवित [ भगत - बुतरू सँवाद 2.0] वे भोलाराम जीवित हैं। पहले के जमाने में आपने भी इस तरह के नाम सुने होंगे-- कप्तान, मेजर आदि। जरूरी ...